इस्लामी सभ्यता पर मुंशी प्रेमचंद का वह लेख जिसे हर हिंदुस्तानी को पढ़ना चाहिए

पुण्यतिथि


इस्लामी सभ्यता पर मुंशी प्रेमचंद का वह लेख जिसे हर हिंदुस्तानी को पढ़ना चाहिए


इस्लामी सभ्यता पर मुंशी प्रेमचंद का यह लेख सबसे पहले 1925 में 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था






हिंदू और मुसलमान दोनों एक हज़ार वर्षों से हिंदुस्तान में रहते चले आये हैं. लेकिन अभी तक एक-दूसरे को समझ नहीं सके. हिंदू के लिए मुसलमान एक रहस्य है और मुसलमान के लिये हिंदू एक मुअम्मा (पहेली). न हिंदू को इतनी फुर्सत है कि इस्लाम के तत्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश है कि हिंदू-धर्म-तत्वों के सागर में गोते लगाये. दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके सिर-फुटौव्वल करने में आमादा रहते हैं.


हिंदू समझता है कि दुनियाभर की बुराइयां मुसलमानों में भरी हुई हैं : इनमें न दया है, न धर्म, न सदाचार, न संयम. मुसलमान समझता है कि हिंदू, पत्थरों को पूजने वाला, गर्दन में धागा डालने वाला, माथा रंगने वाला पशु है. दोनों बड़े दलों में जो बड़े धर्माचार्य हैं, मानो द्वेष और विरोध ही उनके धर्म का प्रधान लक्षण है.


हम इस समय हिंदू-मुस्लिम-वैमनस्य पर कुछ नहीं कहना चाहते. केवल ये देखना चाहते हैं कि हिंदुओं की, मुसलमानों की सभ्यता के विषय में जो धारणा है, वह कहां तक न्यायी है.


जहां तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महत्ता नहीं दी, जितनी इस्लाम ने दी है. इस्लाम धर्म की बुनियाद न्याय पर रखी गयी है. वहां रजा और रंक, अमीर और गरीब के लिए केवल एक न्याय है. किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं. ऐसी सैकड़ों रवायतें पेश की जा सकती हैं जहां बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल पर विजय पायी है. ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है जहां बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेग़म, यहां तक कि स्वयं को भी न्याय की वेदी पर होम कर दिया.


हज़रत मोहम्मद ने धर्मोपदेशकों को इस्लाम का प्रचार करने के लिए देशांतरों में भेजते हुए उपदेश दिया था : जब लोग तुमसे पूछें कि स्वर्ग की कुंजी क्या है, तो कहना कि वह ईश्वर की भक्ति और सत्कार्य में है.





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