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Showing posts from September 29, 2019

मुझे इज़्ज़त से बस दो वक़्त की रोटी कमाने दो

कहाँ कहता हूँ महलों की जगह झुग्गी बसाने दो मुझे इज़्ज़त से बस दो वक़्त की रोटी कमाने दो तुम्हारा घर रहे रौशन तुम्हारे चाँद सूरज से मेरे घर के चराग़ों को भी थोड़ा झिलमिलाने दो शहर में आ गिरा है इक परिंदा गाँव का शायद बहुत रोयेगी उसकी माँ, उसे घर लौट जाने दो लहर के साथ बह जाने का फ़न सीखा नहीं मैंने करूँगा सामना गर डूबता हूँ, डूब जाने दो मेरे पाँवों के छाले देखकर मुँह फेरने वालो! दिखा दूँगा तुम्हें रफ़्तार अपनी, वक़्त आने दो वो कहता है झुका लूँ सर तो मुझको ज़िन्दगी देगा यही क़ीमत है मेरी जां की तो फिर मर ही जाने दो ग़ज़लकार-डॉ. मनोज कुमार

कल रात की है बात

कल रात की है बात कि  अकस्मात एक ब्यूटी गर्ल ने हमारा रास्ता रोका हम समझे पहचान ने में खा गई धोखा हम शरिफ़ ज़ादे वहां से गुज़र गये गुस्से  से कन्या के के केश बिखर गए ज़ोर--ज़ोर से चिल्लाने लगी ए शहर के जवां मर्दो आओ और मुझे इस शरीफ़ ज़ादे से बचाओ मैं अपनी ज़ुल्फो में अवध की सुबह और बनारस की शाम और चेहरे पे कश्मीर  का पानी रखती हूं इस लफंगे मुझे क्यों नहीं छेड़ा  क्या मैं इसकी मां लगती हू   आज के हालात पर