ग़ज़ल ©डॉ कविता"किरण" कब तलक यूँ ही चुप रहा जाए हाले-दिल क्यूँ न कह दिया जाये दिल की दिल में कहीं न रह जाये कुछ कहा और कुछ सुना जाए जब हुई ही नहीं ख़ता हमसे सर पे इल्ज़ाम क्यूँ लिया जाए दर्द की कोई हद तो हो आख़िर य ज़ेहर कब तलक पिया जाये जो किसी ने नहीं किया अब तक काम ऐसा कोई किया जाए चल "किरण"बज़्मे-ज़िंदगी से उठ हो गई शाम घर चला जाये