कहाँ कहता हूँ महलों की जगह झुग्गी बसाने दो मुझे इज़्ज़त से बस दो वक़्त की रोटी कमाने दो तुम्हारा घर रहे रौशन तुम्हारे चाँद सूरज से मेरे घर के चराग़ों को भी थोड़ा झिलमिलाने दो शहर में आ गिरा है इक परिंदा गाँव का शायद बहुत रोयेगी उसकी माँ, उसे घर लौट जाने दो लहर के साथ बह जाने का फ़न सीखा नहीं मैंने करूँगा सामना गर डूबता हूँ, डूब जाने दो मेरे पाँवों के छाले देखकर मुँह फेरने वालो! दिखा दूँगा तुम्हें रफ़्तार अपनी, वक़्त आने दो वो कहता है झुका लूँ सर तो मुझको ज़िन्दगी देगा यही क़ीमत है मेरी जां की तो फिर मर ही जाने दो ग़ज़लकार-डॉ. मनोज कुमार