“संपूर्ण मानव जीवन प्रासंगिक है, जिसमें धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, आदि-अनंत, क्लेश-कलंक आदि प्रसंगों से मानव का सामना होना स्वाभाविक है। जीवनकाल में मनुष्य प्रत्येक क्षण किसी न किसी भाव को अंतर्मन में समाहित किए रहता है, जिसके प्रभाव के कारण उसका आचरण उस भाव पर निर्भर हो जाता है। आधुनिकता के इस युग में मानव प्रतिदिन के विभिन्न क्रियाकलापों में व्यस्तता के कारण स्वयं को समय देना भूल गया है। ऐसे ही प्रतिदिन की व्यस्तता में जब हम अपने आस-पास चिलचिलाती धूप में तपन की परवाह न करते हुए, ख़ुशी से हँसते- खिलखिलाते बच्चों को देखते है तब कुछ क्षण के लिए चेहरे पर जो वास्तविक मुस्कान बिखरती है, वह हमारे बालपन की स्मृतियों को पुनः जाग्रत कर देती है। आज भी यदि हम नादनी करते हैं तो अक्सर सुनने को मिलता है कि बड़े तो हो गए पर बचपना नहीं गया। बचपन हमारी स्मृति की एक अमिट अवस्था है। चाहे माँ का दुलार हो, पापा का प्यार हो, खेल-खेल में कोई चोट या भाई-बहन की नोक-झोक, यह सभी तो थे वह चिंतारहित आनद के दिन। बचपन में कोई झगडा हो जाता तो कुछ पल के बाद हम भूल जाते और झगडा स्वयं मिट जाता था। को...